October 20, 2014

NC 2014 : बेहतर संचार के लिए जरूरी है सही भाषा

अमेरिका से आई प्रतिभागी जैकलिन के साथ बातचीत । फोटो - जगबीर ।
बचपन में अक्सर विदेशी पर्यटकों को देखकर मैं बहुत आकर्षित होता था। उन्हें दूसरे ग्रह से आया हुआ प्राणी समझता रहा। कभी बात करना तो दूर की बात है।

टीसा की चैथी नेशनल कांफ्रेन्स के दौरान पहले ही दिन सभी प्रतिभागियों को विभिन्न समूहों में बांटने का क्रम शुरू हुआ। सिर्फ एक हिन्दी ग्रुप और 4 इंग्लिश ग्रुप। जब हिन्दी ग्रुप में शामिल होने के लिए कहा गया तो पहले तो कोई नहीं आया, फिर धीरे-धीरे कुछ लोग सामने आए। बड़ेे ही आश्चर्य का विषय रहा कि 10 हकलाने वाले साथी भी हिन्दी समूह के लिए एकत्र नहीं हो सके।

मैंने इस बार तय कर लिया था कि इंग्लिश ग्रुप में ही जाउंगा। लंच के बाद हिन्दी ग्रुप को खत्म कर दिया गया और सभी को अपनी सुविधानुसार भाषा में बोलने की छूट मिल गई। मैं जिस ग्रुप में था वहां सब अंग्रेजी में अभ्यास कर रहे थे। सिर्फ मैं ही ऐसा था जो हिन्दी में बोल रहा था, लेकिन बीच-बीच में मैं भी अंग्रेजी के वाक्य बोलता रहा।

एन.सी. में कुछ विदेशी मेहमान भी आए थे। मैंने तय किया कि टीसा के लिए इनका इंटरव्यू लूंगा, वह भी बिना किसी अनुवादक की सहायता लिए। मैंने यूक्रेन के सिरजे, संयुक्त राज्य अमेरिका के रूबिन और जैकलिन का साक्षात्कार लिया। बातचीत के दौरान भयंकर गलत अंग्रेजी बोला, फिर भी जो कुछ कहना था, जो कुछ पूंछना था, बहुत ही आसानी से यह सब कर पाया। गलत अंग्रेजी बोलकर भी एक सफल और रोचक इंटरव्यू ले पाया।

ऐसा करना मेरे लिए बहुत ही अद्भुत था। जीवन में पहली बार मैंने किसी से अंग्रेजी में इतनी लम्बी बातचीत किया था। सीख यही मिली कि हकलाहट और भाषा संचार में बाधक हो ही नहीं सकती। भले ही आपको हिन्दी, अंग्रेजी या किसी अन्य विदेशी भाषा का ज्ञान कम हो, फिर भी आप कोशिश करें तो सफल संचार/संवाद कर सकते हैं।

यह कहते हुए दुःख होता है कि हम अपनी मातृभाषा हिन्दी में हकलाना तक भूल गए हैं। बहुसंख्य हकलाने वाले साथी हिन्दी जानते हुए भी अंग्रेजी में हकलाहट पर बातचीत करना, अंग्रेजी में अभ्यास करना और अंग्रेजी में हकलाना अधिक रूचिकर पाते हैं। जबकि हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि अंग्रेजी बोलते समय ही हम अधिक हकलाते हैं और इस एन.सी. के दौरान भी इस सत्य को सभी ने स्वीकार किया कि हिन्दी में कम और अंग्रेजी में अधिक हकलाहट होती है।

हमारे देश के कई महापुरूष, चिंतक, वैज्ञानिक हिन्दी और अंग्रेजी के साथ ही कई भारतीय व विदेशी भाषाओं का अच्छा ज्ञान रखते थे। ऐसा इसलिए नहीं कि भाषा ज्ञान के आधार पर अपनी धाक जमा सकें, बल्कि वे अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक सहजता से, आसानी से पहुंचाना चाहते थे। दुनिया के विभिन्न भाषाओं के ज्ञान को खुद अर्जित करना, सीखना चाहते थे। दुर्भाग्य है कि आज कई लोग ‘‘मुझे हिन्दी नहीं आती’’ वाक्य कहने में बड़ा गौरव महसूस करते हैं। सच तो यह है कि ये सभी लोग हिन्दी को जानते, समझते हैं, हिन्दी में सोचते हैं, विचार करते हैं, हिन्दी फिल्म और गाने का आनन्द लेते हैं। जब किसी मल्टीप्लेक्स में कोई हिन्दी मूवी रिलीज होती है तो 500 रूपए का टिकट खरीदकर सबसे पहले यही लोग जाते हैं। बेचारा, गरीब और मध्यमवर्ग का व्यक्ति जो हिन्दीपट्टी का है, सौ बार सोचेगा 500 का टिकट खरीदने से पहले।

एक और पहलू यह है कि जब कोई अहिन्दीभाषी राज्य का व्यक्ति गलत हिन्दी बोलता है तो लोग उसका मजाक नहीं उडाते, लेकिन अगर कोई हिन्दीभाषी व्यक्ति गलत अंग्रेजी बोलता है तो उसका माखौल उडाया जाता है, यह दोयम दर्जे का व्यवहार हिन्दीभाषियों के साथ क्यों?

वास्तव में एक प्रभावी संचार के लिए सही भाषा का चयन किया जाना अतिआवश्यक है। किसी ऐसी सभा में जहां पर अधिकतर लोग हिन्दी जानने वाले बैठै हों, वहां पर अंग्रेजी में भाषण देने पर आपका संचार अधिक प्रभावी नहीं होगा। क्योंकि अधिकतर लोग ठीक तरह से आपकी बातों को, आपके विचारों को समझ ही नहीं पाएंगे। अब एक उदाहरण देखिए - हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी जब से प्रधानमंत्री बने हैं, विदेशी दौरों के दौरान हिन्दी में ही भाषण देते हैं। एक हिन्दीभाषी होने के कारण मैं भी बहुत खुश हुआ कि प्रधानमंत्री जी ने हमारे देश की शान बढ़ाई। लेकिन आज अगर पूछा जाए तो मैं कहूंगा कि प्रधानमंत्री जी अगर विदेशों में जाकर अंग्रेजी में बात करते तो अधिक प्रभावी संचार कहलाता। तब वहां पर अधिक से अधिक लोग उनकी बातों को सीधे सुन और समझ पाते। प्रधानमंत्री जी ने जरूर राजनीतिक और रणनीतिक योजना के तहत विदेशों में हिन्दी में भाषण दिया होगा।

हमें हमेशा भाषा ज्ञान बखारने की बजाय संचार/संवाद की प्रभावशीलता पर अधिक फोकस करना चाहिए। अगर सामने वाला व्यक्ति आपकी भाषा को अच्छी तरह से समझ पा रहा है, तो वही एक अच्छा संचार कहलाएगा।

दूसरा तथ्य यह है कि हम अपनी मातृभाषा को पढना और सुनना अधिक आसान और सहज पाते हैं। दिमाग को मेहनत नहीं करनी पडती हिन्दी को पढने, सुनने और समझने में। वहीं अंग्रेजी या अन्य दूसरी भाषा में संचार के लिए हमें अधिक सतर्क रहना पडता है।

मेरा विरोध अंग्रेजी या किसी भी अन्य भाषा से कतई नहीं है। मेरा मत है कि अगर आप एक अच्छे संचारकर्ता बनना चाहते हैं, तो अपने श्रोताओं की भाषा का ध्यान रखना ज्यादा श्रेयस्कर है। होता यह है कि हम सिर्फ अपने सुख के लिए बोलना चाहते हैं, अपनी भडास निकालो, दुनिया उसे समझे या नहीं समझे। यह सोच बहुत ही गलत है और संचार में बाधक भी। आप यह ध्यान रखिए की आप अपने लिए नहीं दूसरों के लिए बोल रहे हैं। इसलिए ऐसी भाषा में बोलिए जो अधिकतर लोग आसानी से समझ पाएं।

इस एन.सी. ने वाकई मेरे जीवन में अद्भुत अनुभव और सुन्दर यादगार को स्थापित किया है। इसके लिए टीसा के पुणे स्वयं सहायता समूह के मुखिया श्री वीरेन्द्र सिरसे जी और सभी साथियों को साधुवाद, धन्यवाद और आभार।

- अमितसिंह कुशवाह,
सतना, मध्यप्रदेश।
09300939758


1 comment:

Satyendra said...

असल मे भाषा मुद्दा नही है - असली बात है, हम दूसरों को क्या दे रहे हैं और किस नीयत से...प्रेम, स्नेह, सेवा, मैत्री भाषाओं से परे हैं....